How
idol worship started..??/ मूर्ति पूजा कैसे शुरू हुई..??
अज्ञानता
के दिनों में पैगंबर मुहम्मद (शांति हो उन पर) के आने से पहले अरबों द्वारा मूर्ति पूजा करना कोई नई बात नहीं थी, लेकिन यह सब बहुत पहले अल्लाह के पैगंबर नुह (श) के लोगों के समय से शुरू हुआ, इससे
पहले दुनिया में कोई शिर्क या मूर्ति पूजा नहीं करता था।
शुरुआत
में केवल पांच मूर्तियां थीं और इन मूर्तियों को दिए गए नाम वास्तव में नूह (श) के लोगों में से कुछ नैक लोगों के नाम थे। जब इन लोगों की मृत्यु
हो गई, तो शैतान ने इनके लोगों को बहकाया के क्यों ना इन लोगों की मूर्तियां बनाई जाएं और उन मूर्तियों को सभाओं के स्थानों में उनके स्मरण और पवित्रता
के संकेत के रूप में रखा जाये।
हालांकि
तब, उनमें
से कोई भी इन मूर्तियों की पूजा नहीं करता था। जब उनको बनाने वाली पीढ़ी की मृत्यु होने लगी तो इन मूर्तियों को लगाये जाने का उद्देश्य भी उनके साथ धीरे धीरे लुप्त होने लगा। फ़िर अगली पीढ़ी ने उनकी पूजा करना शुरू कर दिया और बाद की
पीढ़ी ने देखा कि पिछली पीढ़ी ने क्या किया और इन बुतों को उन्होंने अपने इलहा (देवताओं) के रूप में अल्लाह के अलावा पूजना शुरू कर दिया - जो की एक और अकेला इलाह है।
ईसाई
चर्चों में ईसा (ईश्वर के पैगंबर) की और उनकी मां मरीयम (शांति हो उन दोनों पर) की मूर्तियां लोगों के लिए शिर्क के मार्ग का नवीनतम उदाहरण हैं, शैतान मानव जाति को थोड़ा थोड़ा करके, शुरुआत से उकसाता है और आखिरकार उन्हें अंतिम गिरावट के लिए प्रेरित करता है जैसा कि उसने नुह (श) के लोगों के साथ किया, उन्हें
मूर्तियों की पूजा करने के लिए बेहकाया कदम बा कदम जब तक वे एक ऐसी जगह ना पहुंच गए, जहां से वापसी नामुमकिन थी कि वे
फिर
से विचार करें…
और
(उलटे) कहने लगे (नूह के लोग) कि आपने माबूदों को हरगिज़ न छोड़ना और न वद को और सुआ को
और न यगूस और यऊक़ व नस्र को छोड़ना (ये उनकी मूर्तियों के नाम हैं)। और उन्होंने बहुतेरों को गुमराह कर छोड़ा और तू (उन)
ज़ालिमों की गुमराही को और बढ़ा दे। (आख़िर) वह अपने गुनाहों की बदौलत (पहले
तो) डुबाए गए फिर जहन्नुम में झोंके गए, तो उन लोगों ने ख़ुदा के सिवा किसी को अपना
मददगार न पाया। (अल-कुरान सूरा 71 आयात 23-25)
How
idol worship started..??
Idol
worshiping by the Arab Pagans before the coming of Prophet Muhammad (peace be
upon him), during the days of ignorance was not a new thing, but it all started
a long time before with the people of Allah’s Messenger Nuh (Noah pbuh), before whom there was no
Shirk or idol worshiping in the world.
In
the beginning there were only five idols and the names given to these
idols were
actually the names of righteous men from the people of Nuh (pbuh). When these men died, Shaitaan
(Satan – the Arch Devil) whispered to their people to make statues of them and
to place these statues in the places of gatherings as a sign of their
remembrance and piety.
However,
none amongst them worshiped these statues, until the people who made them died
and the purpose of these statues was forgotten. Then the next generation began
to worship them and the later generation saw what the previous generation did
and followed them in taking these figures as their ilahs (deities) to be
worshiped besides Allah – the One and Only ilah.
Statues
of Jesus (messenger of God) and his mother Marry (peace be upon them) placed in
the Christian churches are the latest examples of how in order to ease the path of
shirk for the people, Shaitaan tempts mankind little by little, beginning with
a few steps and eventually leading them to the final downfall as he did with the people of Nuh
(pbuh), persuading them into worshiping idols step by step until they reached a
stage from where they cannot return to
Think
again…
And
they (people of Noah) have said (to each other): ‘Abandon not your gods:
abandon neither Wadd, nor Suwaa, neither Yaghooth, nor Yaooq nor Nasr’ (these
are the names of their idols). “They have already misled many; and (O Allah):
grant no increase to the wrong-doers but in error. Because of their sins they
were drowned, then were made to enter the Fire. And they found none to help
them against Allah. (Al-Qur’an Ch.71 Ver.23-25)
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