Who is a kafir? / काफिर कौन होता है?
इस धरती पर एक व्यक्ति का सबसे बड़ा दायित्व उसके माता-पिता के लिए है। लेकिन माता-पिता के दिल में बच्चों के लिए प्यार किसने जगाया ? किसने मां के अंदर अपने बच्चों को पोषित और पोषण करने की इच्छा और शक्ति डाली? किसने पिता के भीतर अपने बच्चों के कल्याण के लिए अपना सबकुछ निछावर करने का जुनून डाला?
थोड़ा से ही विचार से यह स्पष्ट हो जाएगा की मनुष्य भगवान का ही सबसे बड़ा अभारी है। वही उसका निर्माता है, जो उसका पोषण करवाता है, साथ ही साथ उसका अकेला मालिक भी है। तो "कुफ्र" से अधिक विश्वासघात, कृतज्ञता, विद्रोह और राजद्रोह क्या हो सकता है? भगवान को अस्वीकार करने से ज्यादा अस्वीकृति क्या हो सकती है? - जिसने हमे हमारा अस्तित्व प्रदान किया?
एक काफिर वह व्यक्ति है जो भगवान को अस्वीकार करता है लेकिन अरबी में शब्द "कफरा", "कुफ्र", "काफिर" और अन्य व्युत्पन्न रूपों का अर्थ भगवान के अस्तित्व में गलत विचार नही, बल्कि जानबूझकर कर उसे झुठलाना है। एक व्यक्ति जिसने अपने मन में सच्चाई को देख लिया हो, लेकिन वह जानबूझकर भगवान के संकेतों से दूर भाग रहा हो उनके स्पष्ट होने के बाद - हक़ीक़त में वही असली "कफिर" है।
इस अस्वीकृति की संभावना मनुष्य के पास स्वतंत्र इच्छा के होने की वजह से है और यह अस्वीकृति ही उसकी आध्यात्मिक मृत्यु का कारण बनती है। उसकी इंद्रियां अच्छे या बेहतर प्रभाव के लिए अभ्यस्त हो जाती हैं। जो कोई भी सत्य को पाने के लिए काम करता है, अक्सर पाया गया है कि यदि पूर्ण विचार के बाद, वह सच्चाई के खिलाफ जाने का फैसला करता है, तो उसका दिमाग पूरी तरह से विपरीत दिशा में आगे बढ़ने लगता है। समझाई गई किसी भी चीज की सराहना करने में वह विफल होने लगता है । उसके कान बहरे हो जाते हैं - सुनते हुए भी वह नही सुनता, उसकी आंखें अंधी हो जातीं हैं - देखते हुए भी वह नहीं देखता और सामने वाला समझ जाता है कि उसकी अक्ल पर पर्दे पड़ गयें है।
जितना अधिक वह अपने भगवान के चिन्हों से दूर भागता है, उतना ही उसकी दृष्टि धुंधली होती रहती है और आवाज उसके कानों पर धीमी और धीमी होती जाती है, जब तक वह बहरापन के स्तर तक न पहुंच जाए। इसके लिए वह खुद जिम्मेदार है और इस मंच पर अपनी मर्ज़ी से पहुँचा है। इसके बाद उसे अकेला छोड़ दिया जाता है कि वह खुद से बात कर सके और शायद पश्चाताप कर फिर से अपने भगवान की दया हासिल कर सके।
इस वक़्त के दौरान जब उसे भटकने के लिए छोड़ दिया जाता है, तब भी भगवान की दया उसपर रहती है। इस नियुक्त समय के दौरान उसकी कृपा उसके लिए खुली रहती है, शायद वह पश्चाताप करे और अपने भगवान और मालिक के पास लौट आये, क्यूंकि केवल भगवान की कृपा ही उसे बचा सकती है। यदि वह ऐसा नहीं करता है, तो नुकसान खुद उसी का होगा, क्योंकि अगर एक बार पलटने का वक़्त खत्म हो गया तो फिर कोई मौका नही मिलेगा कि वह वापस आ सके या
फिर से विचार करे…
और उससे बढ़कर और कौन ज़ालिम होगा जिसको ख़ुदा की आयतें याद दिलाई जाए और वह उनसे रद गिरदानी (मुँह फेर ले) करे और अपने पहले करतूतों को जो उसके हाथों ने किए हैं भूल बैठे (गोया) हमने खुद उनके दिलों पर परदे डाल दिए हैं कि वह (हक़ बात को) न समझ सकें और (गोया) उनके कानों में गिरानी पैदा कर दी है कि (सुन न सकें) और अगर तुम उनको राहे रास्त की तरफ़ बुलाओ भी तो ये हरगिज़ कभी रुबरु होने वाले नहीं हैं और (ऐ रसूल) तुम्हारा परवरदिगार तो बड़ा बख्शने वाला मेहरबान है अगर उनकी करतूतों की सज़ा में धर पकड़ करता तो फौरन (दुनिया ही में) उन पर अज़ाब नाज़िल कर देता मगर उनके लिए तो एक मियाद (मुक़र्रर) है जिससे खुदा के सिवा कहीें पनाह की जगह न पाएंगें। (अल-कुरान सूरा 18 आयात 57- 58)
Who is a kafir.?
The greatest obligation that a man owes on this earth is to his parents. But who has implanted the love for children in the parent’s heart? Who endowed the mother with the will & power to nurture, nourish & feed her children? Who inspired the father with the passion to spend everything in his possession for the well being of his children?
A little reflection would reveal that God is the greatest benefactor of man. He is his Creator, Lord, who Nourishes, Sustains as well as the Only Owner. So what can be the greater betrayal, ingratitude, rebellion & treason than “kufr”? What can be greater rejection than the rejection of God? – The One to whom we owe our very existence?
A kafir is the one who rejects faith but “kafara“, “kufr”, “kafir” & other derivative forms of the word in Arabic also implies a deliberate or intentional rejection, instead of a mistaken idea in the existence of God. A person who has an attitude of mind which is in-consistent with an earnest desire to see the truth; who deliberately turns away from the Signs of his Lord after they are been made clear to him – is a “kafir“ in true sense of the word.
The possibility of this rejection is due to the grant of a free will to man & the consequences of such a rejection results in the deadening of the spiritual faculties. The senses get impervious to good or for better influence. Anyone who has worked for the dissemination of the Truth often finds that if, after full consideration, he decides to go against the Truth then, his mind begins to move in a completely opposite direction so that he fails to appreciate anything that is explained to him. His ears become deaf – hearing he hears not, his eyes are blinded – seeing he sees not, and one gets the distinct impression that there is a veil over his spiritual senses.
The more he turns away from the Signs of his Lord, the more his vision gets blurred & the voice keeps on getting fainter & fainter on his ears, until a stage of deafness is a reached. His own actions are responsible for this and he had reached at such a stage by his own choice. He is then left alone for a time that he may commune with himself & perhaps repent and seek God’s Mercy again.
Even during this time when he is left alone to wander astray, God’s Mercy still encompasses him beyond his deserts. His Grace is still open to him during this appointed time, if he repents and returns to his Lord and Master; as nothing but only God’s Grace can save him if he does not, the loss will be his own, because ones the time of repentance is over then there will be no chance of turning back or to
Think again…
And who does more wrong than one who is reminded of the Signs of his Lord, but turns away from them, forgetting what (deeds) his hands have sent forth. Truly, We have set veils over their hearts so that they understand this (Qur’aan) not, and over their ears, deafness. And if you (O Mohammad) call them to guidance, even then will they never accept guidance. And your Lord is Most Forgiving, Owner of Mercy. Were He to call them (at once) to account for what they have earned, then surly He would have hastened their punishment. But, they have their appointed time, beyond which they will find no escape. (Al-Qur’aan Sura. 18 Ayat. 57- 58)
Comments
Post a Comment