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How are we different from Angels.??/ हम फरिश्तों से अलग कैसे हैं.??

https://youtu.be/tLuB4IpnSk8


How are we different from Angels.??/ हम फरिश्तों से अलग कैसे हैं.??

हर कोई मानता है कि ईश्वर की इच्छा का पालन करना, प्रेम, करुणा, सच्चाई और अन्य अच्छे गुणों की हम सब को ज़रूरत है, तो फिर इन गुणों को हमारे अंदर प्रोग्राम क्यों नहीं किया गया और हमे शुरुआत से ही स्वर्ग में क्यों नहीं डाला गया?

वैसे क़ुरान के मुताबिक हमारे माता-पिता आदम और हव्वा (शांति हो उन पर) को शुरुआत में वहीं रखा गया था लेकिन वे पहले ही मौके पर असफल साबित हुए और वैसे भी: यदि प्रोग्राम किया जये, तो यह कोई विशेष गुण नहीं; बल्कि उससे कुछ कम है। आप कभी भी गलती ना करने के लिए एक कंप्यूटर को प्रोग्राम कर सकते हैं, लेकिन इससे वह एक सच्चा कंप्यूटर नहीं बन जाएगा, न ही एक सीएटी स्कैनर में करुणा होती है, हालांकि वह बीमारों की मदद करने के लिए बनाया जाता है।

उनके द्वारा ईश्वर की अवज्ञा करना सबसे गंभीर अपराध था, लेकिन ऐसा करने के बाद, भयानक हानि और खालीपन का ज्ञात होने के बाद, उस ग़लती से अपंग होने के बाद, फिर से ईश्वर का विश्वास प्राप्त करना एक बेहद मूल्यवान अनुभव था; भगवान की अस्वीकृति के परिणाम अब एक चेतावनी से अधिक हो गए थे - वह एक आंतरिक पाठ बन चुके थे।

इस प्रकार, हमारा जीवन विकास और क्षय की निरंतर प्रक्रिया है। यद्यपि भगवान यहां मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए हमें अनगिनत अवसर प्रदान करते हैं, फिर भी वह हमें गलती करने की अनुमति देते हैं। अपने परीक्षण और गलतियों को समझ के, हम सीखते हैं और भलाई के स्तर की ओर प्रगति करते हैं। इस तरह, गुनाह करने की ताक़त होते हुए उससे दूर रहने की क्षमता, हमें सबसे उच्च स्थिति तक ले जाती है।

कुरान फरिश्तों को हमेशा आज्ञाकारी प्राणियों के रूप में प्रस्तुत करता है, जबकि मनुष्य एक संभावित रूप से अधिक बड़ा और वैकल्पिक रूप से अधिक खराब प्राणी है। यह मनुष्य की रचना का एक आवशक प्रमाण है; बुद्धि और विवेक उस के पास ऐसे हथियार और उपकरण हैं जिनसे वह अपनी इच्छाओं के चयन का परिणाम जानता है और उनसे सीखता है।

इस तरह, हम इन प्रयासों के माध्यम से दूसरों के साथ, धैर्य और उदारता के गुण, ज्ञान, धार्मिकता, चिंता और प्यार में बढ़ते हैं और इस तरह के गुणों को विकसित करके, हम भगवान की दया, क्षमा, करुणा, न्याय को प्राप्त करने की क्षमता में वृद्धि का अनुभव करते हैं और इस तरह, फरिश्तों के विपरीत, हम भगवान के सबसे ज्यादा क़रीब पहुंच सकते हैं।

इसलिए, हमारे मार्गदर्शन और हमारे अच्छे कर्मों के प्रमुख लाभधारी और साथ-साथ हमारे बुरे कर्मों का प्राथमिक शिकार हम ख़ुद होते हैं। अगर हम अच्छे हैं, तो हमें अत्यधिक खुशी और कल्याण प्राप्त होगा और अगर हम अनिवार्य रूप से बुरे हैं, तो हमारा ही भयानक नुकसान और पीड़ा होगी। जैसे पवित्रता और भलाई, गलत काम करने और बुराई के विभिन्न स्तर हैं, इसी तरह स्वर्ग और नरक के भी विभिन्न स्तर हैं।

चूंकि मां के गर्भ में बच्चे की वृद्धि निश्चित रूप से उसके अस्तित्व के अगले चरण को प्रभावित करती है, इसी तरह इस जीवन में हमारे नैतिक-आध्यात्मिक विकास की स्थिति हमारी अगली आने वाली ज़िन्दगी का अविभाज्य अंग है, क्योंकि जैसे विकास और खुशी के लिए बड़ी संभावनाएं हैं उसी समान नैतिक क्षय और पीड़ाओं के भी बड़े खतरें हैं।

लेकिन, सभी मनुष्यों को यह विशेष अधिकार देना अल्लाह की एक बहुत बडी नेमत है, और मनुष्य को इसके साथ मिलने वाले सभी कर्तव्यों को पूरा करना चाहिए; उसे समझना चाहिए कि महान सम्मान के साथ महान जिम्मेदारियां भी आती हैं।

फिर से विचार करें..

और [हे मुहम्मद], जब आपके भगवान ने फरिश्तों से कहा, "मैं पृथ्वी पर अपना ख़लीफ़ा बनाउंगा।" उन्होंने कहा, "क्या आप उस पर उसे उतरेंगे जो भ्रष्टाचार फैलाएगा और खून बहायेगा, जबकि हम आपकी हम्द-ओ-सना करते हैं?" अल्लाह ने कहा, "वास्तव में, मुझे पता है जो आप नहीं जानते।"

और उसने आदम को सभी चीजों के नाम सिखाये - फिर उसने उन्हें फ़रिश्तों को दिखाया और कहा, "इनके नामों के बारे में मुझे सूचित करें, अगर आप सच्चे हैं।"

उन्होंने कहा, "आप महान हैं; हमें जो कुछ भी आपने सिखाया है उसे छोड़कर हमारे पास कोई ज्ञान नहीं है। दरअसल, यह आप ही जानते हैं, बुद्धिमान।"

उसने कहा, "हे आदम, इनको इन चीजों नामों के बारे में सूचित करो।" और जब उसने उन्हें उनके नामों के बारे में सूचित किया, तो उसने कहा, "क्या मैंने आपको यह नहीं बताया था कि मैं आकाश और पृथ्वी के अदृश्य [पहलुओं] को जानता हूं? और मुझे पता है कि आप क्या ज़ाहिर करते हो और क्या छुपाते हो।" (अल- कुरान सूरा 2 आयात 30-33)

How are we different from the Angels.??

One may admit that Obedience to God, love, compassion, truth, and other good qualities are all that we need so Why were these virtues not simply programmed into us. And why were we not put into paradise from the start?

Well our parents Adam and Eve (may peace be upon them) were placed there in the beginning as stated in the Qur’an but they failed at the very first chance and also: if programmed, is not a true virtue; it is always something less. You can program a computer to never make an incorrect statement, but it will not thereby become a truthful computer, nor does a CAT scanner posses compassion, although it is made to help the sick.

Disobedience to God by them was surly one of the gravest sins, but to have done that and known the terrible loss and emptiness, to have been crippled by that error and then to have found faith, is an extremely valuable experience; for the consequences of the rejection of God has now became more than a warning – it has become an internalized lesson.

Thus, our life is a continuous process of growth and decay. Although God presents us with innumerable opportunities to receive guidance out here, He also allows us to error. It’s by this trial and error, and realizing and rising above our mistakes, that we learn and progress to higher levels of goodness. In this way, error realised and keeping away from it while having a capacity to do it, leads us to a higher state.

The Qur’an presents angels as always obedient beings, while man is a potentially much greater and alternatively much worse creature. This brings out an essential component of man’s creation; Intellect, the tool for weighing the consequences of one’s choices and learning from them.

Hence, we grow in virtue, wisdom, righteousness, concern and love of our fellow men, patience and generosity through our personal striving and by developing such attributes, we simultaneously grow in our ability to receive and experience God’s mercy, forgiveness, compassion, justice and love. In this way, unlike the angels, we are increasing in nearness to God.

Therefore, the principal beneficiary of our seeking guidance and of our good deeds, as well as the primary victim of our evil acts – is none but us. If we are good, we will experience extreme joy and well-being. If we are essentially evil, then ours will be terrible loss and sufferings. Just as there are differing levels of piety and goodness, wrong-doing and evil, so do there are varied levels of Heaven and Hell.

As the growth of the foetus in the mother’s womb decidedly affects the next stage of its existence, our moral-spiritual evolution in this life is bound to be inseparable of our condition in the next because, with great potential for growth and happiness comes parallel danger of moral decay and sufferings.

But, it is God’s goodness to give man all these privileges, and man must shoulder all the duties that go with them; he must understand that with great honour comes great responsibilities.

Think again..

And [mention, O Muhammad], when your Lord said to the angels, "Indeed, I will make upon the earth a successive authority." They said, "Will You place upon it one who causes corruption therein and sheds blood, while we declare Your praise and prayer?" Allah said, "Indeed, I know that which you do not know."

And He taught Adam the names - all of them. Then He showed them to the angels and said, "Inform Me of the names of these, if you are truthful."

They said, "Exalted are You; we have no knowledge except what You have taught us. Indeed, it is You who is the Knowing, the Wise."

He said, "O Adam, inform them of their names." And when he had informed them of their names, He said, "Did I not tell you that I know the unseen [aspects] of the heavens and the earth? And I know what you reveal and what you conceal."(Al-Qur’an Ch.2 Ver.30-33)

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